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होली व्रत
कथानुसार श्रीहरि विष्णु के परम भक्त प्रहलाद का पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप नास्तिक और निरंकुश था. उसने अपने पुत्र से विष्णु भक्ति छोड़ने के लिए कहा परन्तु अथक प्रयासो के बाद भी वह सफल नहीं हो सका. तदुपरांत हिरण्यकश्यप ने अपने बेटे की भक्ति को देखते हुए उसे मरवा देने का निर्णय लिया. लेकिन अपने पुत्र को मारने की उसकी कई कोशिशें विफल रहीं इसके बाद उसने यह कार्य अपनी बहन होलिका को सौंपा. होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि वह कभी जल नहीं सकती. होलिका अपने भाई के कहने पर प्रहलाद को लेकर जलती चिता पर बैठ गई. लेकिन इस आग में प्रहलाद तो जला नहीं पर होलिका जल गई. तभी से इस त्योहार के मनाने की प्रथा चल पड़ी है.
इसी घटना के स्मरण स्वरुप लोग होली की पिछली रात को होलिका जलाते हैं और अगले दिन रंग और गुलाल से एक दूसरे के साथ होली खेलते हैं.
होली के अवसर पर सतरंगी रंगों के साथ सात सुरों का अनोखा संगम देखने को मिलता है. इस दिन रंगों से खेलते समय मन में ख़ुशी, प्यार और उमंग छा जाते हैं और अपने आप तन मन नृत्य करने को मचल जाता है. दुश्मनी को दोस्ती के रंग में रंगने वाला त्यौहार होली देश का एकमात्र ऐसा त्यौहार है, जिसे देश के सभी नागरिक उन्मुक्त भाव और सौहार्दपूर्ण तरीके से मानते हैं. इस त्यौहार में भाषा, जाति और धर्म का सभी दीवारें गिर जाती है, जिससे समाज को मानवता का अमूल्य सन्देश मिलता है.
Pujan Vidhi:
होलिका पूजन के समय सभी को एक लोटा जल, कुँकू, चावल, गंध, पुष्प, कच्चा सूत, गुड, साबुत हल्दी, मूँग, बताशे, गुलाल और नारियल आदि से पूजन करना चाहिए। सूर्यास्त के बाद प्रदोष काल में होलिका में अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी जाती है। अग्नि प्रज्ज्वलित होते ही डंडे को बाहर निकाल लिया जाता है।
होलिका के चारों ओर कच्चे सूत को सात या तीन परिक्रमा करते हुए लपेटा जाता है। तत्पश्चात लोटे का शुद्ध जल व अन्य पूजन की सभी वस्तुओं को एक-एक करके होलिका को समर्पित किया जाता है। कँकू, चावल व पुष्प का पूजा में उपयोग किया जाता है। सुगंधित फूलों का प्रयोग कर पंचोपचार विधि से होलिका का पूजन करके पूजन के बाद जल से अर्ध्य दिया जाता है।
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