एक नज़र | Sep 21, 2018,4:38:17
दैहिक,दैविक,और भौतिक तीनो तापों से मुक्ति पाने के लिए श्राद्ध से बढ़कर कोई दूसरा उपाय नहीं है, अतः मनुष्य को यत्न पूर्वक श्राद्ध करना चाहिए। पितरों का माह श्राद्धपक्ष भादों पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक मनाया जाता है। भगवान् ब्रह्मा ने यह पक्ष पितरों के लिए ही बनाया है। सूर्यपुत्र यमदेव के बीस हज़ार वर्ष तक घोर तपस्या करने के फलस्वरूप भगवान शिव ने उन्हें यमलोक और पितृलोक का अधिकारी बनाया। ऐसा माना गया है की जो प्राणी वर्ष पर्यन्त पूजा-पाठ आदि नहीं करते वे अपने पितरों का केवल श्राद्ध करके ईष्ट कार्य और पुण्य प्राप्त कर कर सकते हैं।
96 अवसरों पर किया जा सकता है श्राद्ध-तर्पण
पितरों का श्राद्ध करने के लिए एक साल में 96 अवसर आते हैं। ये हैं बारह महीने की 12 अमावस्या, सतयुग,त्रेता,द्वापर और कलियुग के प्रारंभ की चार तिथियां, मनुवों के आरम्भ की 14 मन्वादि तिथियां, 12 संक्रांतियां, 12 वैधृति योग, 12 व्यतिपात योग, 15 महालय-श्राद्ध पक्ष की तिथियां, पांच अष्टका पांच अन्वष्टका और पांच पूर्वेद्युह ये श्राद्ध करने 96 अवसर हैं। अपने पुरोहित या योग्य विद्वानों से पूछकर इन पूर्ण शुभ अवसरों का लाभ उठाया जा सकता है।
किस तिथि में करें किसका श्राद्ध
—किसी भी माह की जिस तिथि में परिजन की मृत्यु हुई हो इस महालय में उसी संबधित तिथि में श्राद्ध करना चाहिये। कुछ ख़ास तिथियाँ भी हैं जिनमे किसी भी प्रक्रार की मृत वाले परिजन का श्राद्ध किया जाता है।
—सौभाग्यवती यानी पति के रहते ही जिनकी मृत्यु हो गयी हो, उन नारियों का श्राद्ध नवमी तिथि में किया जाता है।
—एकादशी में वैष्णव सन्यासी का श्राद्ध, चतुर्दशी में शस्त्र,आत्म हत्या, विष और दुर्घटना आदि से मृत लोगों का श्राद्ध किया जाता है।
—इसके अतिरिक्त सर्पदंश,ब्राह्मण श्राप,वज्रघात, अग्नि से जले हुए,दंतप्रहार-पशु से आक्रमण,फांसी लगाकर मृत्य, क्षय जैसे महारोग हैजा, डाकुओं के मारे जाने से हुई मृत्यु वाले प्राणी श्राद्धपक्ष की चतुर्दशी और अमावस्या के दिन तर्पण और श्राद्ध करना चाहिये। जिनका मरने पर संस्कार नहीं हुआ हो उनका भी अमावस्या को ही करना चाहिए।
पितृ क्यों करते हैं ब्राह्मणों के शरीर में प्रवेश
श्राद्ध का पक्ष आ गया है, ऐसा जानते ही पितरों को प्रसन्नता होती है। वे परस्पर ऐसा विचार करके उस श्राद्ध में मन के सामान तीव्र गति से अपने परिजनों के घर आ पहुंचते हैं और अंतरिक्ष गामी पितृगण श्राद्ध में ब्राह्मणों के साथ ही भोजन करते हैं। जिन ब्राह्मणों को श्राद्ध में भोजन कराया जाता है, पितृगण उन्ही के शरीर में प्रविष्ट होकर भोजन करते हैं। उसके बाद अपने कुल के श्राद्धकर्ता को आशीर्वाद देकर पितृलोक चले जाते हैं।
ब्राह्मण भोजन के लिए सबसे अच्छा मुहूर्त
पितरों के स्वामी भगवान् जनार्दन के ही शरीर के पसीने से तिल की और रोम से कुश की उतपत्ति हुई है। इसलिए तर्पण और अर्घ्य के समय तिल और कुश का प्रयोग करना चाहिए। श्राद्ध में ब्राह्मण भोज का सबसे पुण्यदायी समय कुतप, दिन का आठवां मुहूर्त अभिजित 11 बजकर 36 मिनट से लेकर १२ बजकर २४ मिनट तक का माना गया है। इस अवधि के मध्य किया जाने वाला श्राद्ध तर्पण एवं ब्राह्मण भोजन पुण्य फलदायी होता है।
इस कारण पितृ पीते हैं अपने परिजन का खून
श्राद्धकर्म प्रकाश के अतिरिक्त पुराणों में लिखा गया है कि, श्राद्धं न कुरुते मोहात तस्य रक्तं पिबन्ति ते। अर्थात् जो श्राद्ध नहीं करते उनके पितृ उनका ही रक्तपान करते हैं और साथ ही... पितरस्तस्य शापं दत्वा प्रयान्ति च। यानी जब कोई व्यक्ति अपने पितरों का श्राद्ध नहीं करता है तो पितृगण अमावस्या तक प्रतीक्षा करने के पश्चात अपने परिजन को श्राप देकर पितृलोक चले जाते हैं।